कोठिया धाम के सुंदरीकरण से लोंगो में हर्ष, ब्रह्मर्षि श्रीरामकृष्ण जी का पावन है चरित्र
करहाँ (मऊ) : मुहम्मदाबाद गोहना विकास खंड के कोठिया-भदीड़ स्थित ब्रम्हर्षि श्रीरामकृष्ण जी महाराज के परम पावन स्थल का पर्यटन विभाग द्वारा सुंदरीकरण किये जाने से समस्त क्षेत्रवासियों में हर्ष का माहौल है।
ब्रह्मर्षि रामकृष्ण जी महाराज का जन्म मऊ जनपद के इटौरा चौबेपुर ग्राम में संवत् 1937 की कार्तिक कृष्ण पक्ष नवमी तिथि तदनुसार दिनांक 26 नवंबर 1880 ईसवी को पिता श्री महावीर चौबे एवं माता श्रीमती कालिंदी देवी के यहाँ हुआ। आपकी पत्नी का नाम शकुंतला देवी था। आपके माता पिता की रामलीला एवं ब्रजलीला में विशेष भक्ति होने के कारण उन्होंने अपनी जन्म भूमि पर राधा कृष्ण का मंदिर बनवाया तथा इसी श्रद्धा से प्रेरित हो कर आपका नामकरण राम कृष्ण किया। प्रति वर्ष की भाँति अपने सहयोगियों के साथ जब आपके पिता राम जन्म उत्सव देखने अयोध्या गए तो जहाँ पर विसूचिका (हैजा ) रोग से प्राणांत हो गया। उस समय आपकी अवस्था केवल चार वर्ष की थी। आपकी माता ने धैर्यता के साथ आपका पालन पोषण किया एवं प्राम्भिक शिक्षा के उपरांत 11 वर्ष की अवस्था में अपने कुल गुरु से उपनयन संस्कार एवं गुरु दीक्षा दिलायी।
आप बड़रांव के आयुर्वेदाचार्य एवं व्याकरणाचार्य पंडित रूपनारायण शुक्ल से व्याकरण की शिक्षा ग्रहण की तथा खर्रा रास्तीपुर के पंडित नागेश्वरानन्द तिवारी से वेदांत का अध्ययन किया तथा देवरिया जनपद के सरजू तटीय गौरा बरहज बाजार आश्रम के योगीराज अनंत महाप्रभु से आपने योग क्रिया के साथ साथ ध्यान-विधि की साधना सीखी और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश लिया। समयोपरांत पत्नी की असहनीय प्रसव वेदना, माता की घबराहट, अति व्याकुलता तथा पुत्री का प्रसूति गृह में मरण, आपके ह्रदय को इतना मर्माहत कर दिया कि आपने ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प ले लिया और एक दिन अर्धरात्रि को अपने सगोत्रीय लोगो की चौखट को प्रणाम कर के आपने गृह त्याग दिया और भभिला गावं के निर्जन कुटी में समय व्यतीत करने लगे। भदीड़ ग्रामवासियो के आग्रह पर सिसोदिया वंश निर्मित भदीड़ के देवालय में ही आपके रहने की व्यवस्था कर दी गयी वहां पर अन्न त्यागकर केवल फलाहार पर यम-नियम के साथ माँ गायत्री की कठोर साधना प्रारम्भ कर दिए। तीन वर्षो के बाद आपके पूर्व जन्म के संस्कार जागृत हुए, तपस्या फलीभूत हुई और माँ गायत्री के दर्शन हुए तथा ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। अब आप त्रिकालदर्शी संत, वाणी में मधुरता, सत्य सुबानी मर्मज्ञ एवं सिद्ध महात्मा बन गए।
कुछ समय पश्चात आप उस स्थान को त्याग कर भदीड़ ताल के किनारे, कोठिया गांव की वन भूमि में एक वृक्ष के नीचे आसन ले लिया। जहाँ पर क्षेत्रवासियों ने आपके लिए एक साधना कक्ष, कुआँ तथा नर्बदेश्वर शिव की स्थापना कर शिवालय का निर्माण करा दिया। ख्याति बढ़ी तो कमजोर और पीड़ित वर्गों से लेकर जमींदार, न्यायधीश, जिलाधीश आदि भी आपके दर्शन के लिए आने लगे लेकिन आप किसी को भी आशीर्वाद नहीं देते थे। कुछ रोगियों को जड़ी बूटी तो किसी को पारिवारिक पूजा पद्धति तो किसी को अनुष्ठान की विधि बताते थे जिससे लोगों का कल्याण होने लगा।
अपने दैनिक नियमानुसार आप प्रातः तीन बजे उठकर उत्तर दिशा में शौच के लिए जाते थे तो नाले के किनारे आम वृक्ष पर चील के सामान विशेष प्रकार के दो श्वेत पक्षी शौच साफ़ करने के बाद आकाश में अदृश्य हो जाते जो एक कौतुहल का विषय बन गया था और कभी कभी लोगो की भीड़ उन पक्षियों को देखने के लिए एकत्रित हो जाती थी। सुबह पांच बजे आप साधना कक्ष में प्रवेश करते जहां किसी को भी यहाँ तक की उनके शिष्यों को भी प्रवेश की अनुमति नहीं थी। 11 बजे साधना कक्ष से बाहर आने के बाद लोगो की समस्याओं का समाधान बताते तथा वहाँ दूर-दूर से आये हुए दर्शनाभिलाषियों के भोजन की व्यवस्था करवाते थे। दो बजे पौराणिक कथा का श्रवण, 5 बजे पुनः साधना गृह में प्रवेश तथा रात्रि 8 बजे बाहर आना यही आपकी दिनचर्या थी।
समाचार पाकर आपकी माता एवं पत्नी भदीड़ ग्रामवासियों के साथ आ गयी और इस शर्त के साथ निवेदन किया की हम केवल आपकी दर्शन हेतु आये हैं और आपकी साधना में बाधक न बनते हुए समय व्यतीत करेंगे। जिसके पश्चात आपके अनुमति से आपकी माता एवं पत्नी के रहने की अलग व्यवस्था कर दी गयी। धर्मसम्राट करपात्री महाराज का भी आपकी कुटी में पदार्पण हुआ जिनको आपने स्वरचित पुस्तक 'तत्वदीप' की प्रति भेंट की। आप कभी किसी भी भेंट एवं चढ़ावे की धनराशि को स्पर्श नहीं करते अपितु उसे काशी के मुमुक्षु भवन में सन्यासियों व् ब्रह्मचारियों के भंडारे में दक्षिणा स्वरुप भेंट कर देते और क्षेत्र के गरीब वर्ग के कन्याओं के विवाह में सहयोग स्वरुप वितरित करवा देते थे।
आपकी जन्मदात्री माता कालिंदी देवी का 1925 में देहांत हो गया जिसका समस्त कार्यक्रम काशी के विद्वानों द्वारा कोठिया आश्रम पर ही संपन्न किया गया।
प्रत्येक प्राणी के जन्म के साथ ही वापसी का समय दे दिया जाना विधि का विधान है। 11 मई 1948 ईसवी अर्थात संवत् 2005 वैशाख कृष्ण पक्ष अमावस्या का दिन था, 11 बजे साधना कक्ष से आने के बाद आपने कहा की ''हमके गंगा मइया बोलावत हईं उनक दर्शन करेके होई'' दूसरे दिन प्रातः 11 बजे साधना कक्ष से बाहर आये तो फलहार नहीं लिए, ज्वर का प्रकोप बढ़ने लगा, शारीरिक पीड़ा का आभास हुआ और चौकी पर लेट गए।
चतुर्दिक समाचार फ़ैल गया कि महाराज जी अस्वस्थ हैं तो बदरी ब्रह्मचारी, मऊ के पंडित बनवारी वैद्य से औषधि ले कर आये किन्तु कोई सफलता नहीं मिली। श्वांस ऊर्ध्व गति से चलने लगी और वनभूमि दर्शानार्थियों से भर गयी, लोगो की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी।
वैशाख शुक्ल पक्ष, अक्षय तृतीया (11 May 1948) के दिन लगभग 10 बजे अचानक हवा तीव्र हो गयी, पेड़ से पत्ते गिरने लगे, पक्षियों का कोलाहल शुरू हो गया और वहां स्थित ताल में पानी की लहरें उठने लगी आसमान में दो बार बादलों की गड़गड़ाहट की ध्वनि हुई और तीसरी ध्वनि के साथ ही अंतिम हिचकी के साथ आप सत्यलोक में समा गए। रथी सजाई गयी, रथी चल पड़ी, पग-पग पर कंधे बदले जा रहे थे, जनसैलाब उमड़ पड़ा, तमसा घाट का मुस्लिम ठेकेदार अतिरिक्त नावों कि व्यवस्था किया और लोगो को निशुल्क नदी पार कराया। मोहम्मदाबाद के निवासी उस पार घाट पर गाजे-बाजे के साथ शोक ध्वनि बजा रहे थे और निवेदन किया कि रथी को नगर में कंधे पर ही ले जाय जाये। ऐसा ही हुआ। जनता अंतिम दर्शन के लिए सड़क के दोनों किनारों पर खड़ी हो गयी। राम नाम सत्य के उद्घोष से नगर गूँज उठा। नगर के बाहर रथी गाड़ी पर रखी गयी और काशी के मणिकर्णिका घाट पर पहुंची। वहाँ शोक, हर्ष में बदल गया, वैदिक ऋचाओं का सस्वर पाठ होने लगा। मृत्योचित कर्म के बाद गोमुख प्रवाहिनी माता गंगा ने मध्य धारा में इस ज्योति पुंज को सदा के लिए अपने गोद में सुला लिया। ॐ शान्ति, शान्ति, शान्तिः।।😢👏💐
आपकी धर्म पत्नी माता शकुंतला द्वारा काशी से बनवायी हुई साढ़े तीन फुट संगमरमर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करायीं जिसकी पूजा अर्चना होने लगी। सन 1957 में माता शकुंतला ने भी इस लोक को त्याग दिय।
1958 के शारदीय नवरात्र में स्वामी करपात्री महाराज ने अपने सहयोगियों से कहा कि कोठिया धाम के गायत्री-साधक के पुण्य तिथि पर गायत्री जप यज्ञ किया जाए और उनकी पुण्य तिथि पर हवन की पूर्णाहुति किया जाए। क्षेत्रवासियों के सहयोग से यज्ञ का प्रारम्भ हुआ जो क्रमोत्तर चलता रहा और आज वह एक मेला का रूप भी ले चुका है।
25 नवंबर 2009 को लेखक श्री सच्चिदानंद शुक्ल के मन में भाव उत्पन्न हुआ और कोठिया महाराज के धाम पर नवदिवसीय श्री लक्ष्मीनारायण यज्ञ का आयोजन किया जिसकी पूर्णाहुति हुई जिसमे समस्त क्षेत्रवासियों ने चढ़ बढ़ कर भाग लिया तथा परिक्रमा कर के पुण्य प्राप्त किया।
ब्रह्मर्षि राम कृष्ण जी ने गायत्री पुरश्चरण की सुगंध चतुर्दिक फैलाकर वातावरण को इतना निर्मल बनाया की कोठिया गांव की वनभूमि कोठिया धाम के नाम से विख्यात है।
Post a Comment