श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह प्रसंग के साथ श्रीमद्भागवत कथा का हुआ विश्राम

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह प्रसंग के साथ श्रीमद्भागवत कथा का हुआ विश्राम

परमात्मा हरण नहीं अपितु वरण करने पर ग्रहण करता हैं : स्वामी ज्ञानानंद

करहाँ (मऊ) : जब कोई आर्तभाव से परमात्मा का वरण कर लेता है, और उन्हें पाने के लिये विह्वल मन से पुकार लगाता है; तब भगवान निश्चित ही उसको पात्र समझकर ग्रहण कर लेता है। बहुत सारे लोग कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का हरण किया था, परंतु ऐसा नहीं है। जब रुक्मिणी ने नारद से प्रभु का गुणगान सुन उन्हें मन ही मन वरण कर लिया और शिशुपाल जैसे दानव से बचने के लिए प्रभु को आर्तभाव से पुकारा तो श्रीकृष्ण ने उन्हें सम्मान सहित द्वारिकापुरी ले जाकर ग्रहण किया और विधिवत पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न किया। अर्थात परमात्मा हरण नहीं बल्कि भक्त के वरण करने पर ग्रहण करता है। रुक्मिणी विवाह पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण चन्द्रजी की ग्रहण लीला है।

उक्त उद्गार श्रीमद आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थानम काशी के संस्थापक अध्यक्ष व भारत राष्ट्र के प्रख्यात दंडी व शांकर सन्यासी परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वतीजी महाराज ने व्यक्त किया। वे जफरपुर स्थित शिव मंदिर पर आयोजित सप्तदिवसीय श्रीमद्भागवत कथा व सह रुद्राम्बिका महायज्ञ के सातवें दिन की कथा श्रवण करा रहे थे।

स्वामीजी ने रुक्मिणी परिणयोत्सव की कथा सुनाते हुये बताया कि रूक्मिणी महारानी ने सुन्दर प्रार्थना किया कि हे प्रभो ! आपके त्रिभुवन सुन्दर गुणों को नारद जी से जबसे हमने श्रवण किया तबसे आपका सौन्दर्य माधुर्य पान करने के लिए हमारी एक-एक श्वांस, चित्त, मन, प्राण आप में प्रविष्ट हो।गया। मेरी आत्मा ही अब आपको समर्पित हो चुकी है। "आत्मर्पितश्च।"  प्रभो यदि जन्म जन्मान्तर के मेरे कुछ भी पुण्य, दान, नियम, व्रत, देव-गुरु-विप्र पूजन आदि के द्वारा परमेश्वर की आराधना की गई हो तो आप गदाग्रजजी भगवान द्वारकाधीश स्वयं आकर मेरा पाणिग्रहण करें। "पाणिं ग्रहणातु में।" ताकि कोई अन्य शिशुपाल आदि मेरा स्पर्श न कर सके। 

स्वामीजी महाराज ने बताया कि माता रुक्मिणी के ईश्वरार्पित सत्य संकल्प को पूर्ण करने के लिए रथारूढ़ गरुणध्वज भगवान का आगमन हो गया और मित्थ्याभिमानी नरपतियों के मद को चूर्ण करते हुए रुक्मिणी महारानी को उन्होंने ग्रहण कर लिया।

स्वामीजी ने बताया कि विदर्भराज कुमारी रुक्मिणी को द्वारका में लाकर भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र ने उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। द्वारकापुरी के प्रत्येक द्वार पर केलों के खम्भे, सुपारी के मांगलिक पौधे, चित्र-विचित्र मालाएं, ध्वजा-पताकाएं, आम्र, अशोक, तमाल, कुशा के तोरण वंदनवार, विल्व, दूर्वा, तुलसी, खील, हरिद्रा, अक्षत, चन्दन, पुष्प, धूप-दीप वैदिक ध्वनि, मन्त्रनाद, मंगल कलश लिए चार-चार दांतो वाले हाथियों के समूह, उछलती-कूदती सागर की तरंगो से द्वारकापुरी अपूर्व शोभा सम्पन्न होने लगी।

द्वारकावासी महालक्ष्मी को साक्षात रुक्मिणी के रूप में और द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण चन्द्रजी को चतुर्भुज महाविष्णु के रूप में देखकर परम आनन्दित हो उठे- "महामोदः पुरोकसाम।" इस अवसर पर भगवान शालिग्राम और तुलसी महारानी का मांगलिक परिणय उत्सव किया और वैदिक आचार्यों ने मन्त्र पाठ और माँ शारदे के वरहस्त प्राप्त पुत्र संगीत साधकों ने अपने भजन-माधुरी से श्रद्धालुओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया। गुरूपीठ पूजन के साथ ही श्रीभागवत भगवान की कथा को विश्राम दे दिया गया।

इस अवसर पर मुख्य यजमान सपत्निक रामविजय सिंह व डॉक्टर रामशब्द सिंह, यज्ञाचार्य पंडित धनंजय, गौरव, अभिषेक, महेश, शुभम व विमल मिश्र सहित ब्लॉक प्रमुख मुहम्मदाबाद गोहना रानू सिंह, आशीष तिवारी, अधिवक्ता त्रिविक्रम सिंह, विनीत पाण्डेय, राजीव गुप्ता, प्रियव्रत शुक्ल, डॉक्टर पप्पू चौहान, आयुष मिश्र, ऋचा चौहान, सत्यव्रत ब्रह्मचारी, नम्रता गुप्ता, रामनिवास चौहान आदि सैकड़ों स्त्री-पुरुष श्रद्धालुगण मौजूद रहे।

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