श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का हरण नहीं बल्कि उनके वरण करने पर ग्रहण किया : स्वामी ज्ञानानंद
करहाँ, मऊ। जनपद मुख्यालय के बकवल में गीता जयंती महोत्सव पर चल रही श्रीमद्भागवत कथा के सातवें एवं विश्राम दिवस की कथा में परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वतीजी महाराज ने श्रीकृष्ण-रुक्मिणी परिणयोत्सव का प्रसंग सुनाया। कहा कि परमात्मा श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का हरण नहीं, बल्कि उनके वरण करने पर ग्रहण किया। उन्होंने इसे लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र की ग्रहण लीला बताया।
कथा विस्तार करते हुये स्वामी जी ने बताया कि रूक्मिणी महारानी ने प्रार्थना किया था कि हे प्रभु! आपके त्रिभुवन सुन्दर गुणों को जबसे हमने श्रवण किया है, आपके सौन्दर्य, माधुर्य पान करने के लिए हमारी एक-एक श्वांस, चित्त-मन-प्राण आपमें प्रविष्ट हो गया है। मेरी आत्मा आपको समर्पित हो चुकी है। आत्मर्पितश्च! हे जगतपति यदि जन्म जन्मान्तर के मेरे कुछ भी पुण्य, दान, नियम, व्रत, देव, गुरु, विप्र पूजन आदि के द्वारा परमेश्वर की आराधना की गई हो तो आप गदाग्रज जी भगवान श्रीद्वारकाधीश स्वयं आकर मेरा पाणिग्रहण करें। पाणिं ग्रहणातु में! और कोई अन्य शिशुपाल आदि मेरा स्पर्श न कर सके। कहा कि माता रुक्मिणी के ईश्वरार्पित सत्य संकल्प को पूर्ण करने के लिए रथारूढ़ गरुणध्वज भगवान का आगमन हो गया और मित्थ्याभिमानी नरपतियों के मद को चूर्ण करते हुए रुक्मिणी महारानी को ग्रहण कर लिया। विदर्भराज कुमारी रुक्मिणी जी को द्वारका में लाकर श्रीभगवान कृष्णचन्द्र ने उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। द्वारकापुरी के प्रत्येक द्वार पर केलों के खम्भे, सुपारी के मांगलिक पौधे, चित्र-विचित्र मालाएं, ध्वजा-पताकाएं, आम्र-अशोक, तमाल-कुशा के तोरण वंदनवार; विल्व, दूर्वा, तुलसी, खील, हरिद्रा, अक्षत, चन्दन, पुष्प, धूप-दीप वैदिक ध्वनि मन्त्रनाद, मंगलकलश लिए चार-चार दांतो वाले हाथियों के समूह, उछलती-कूदती सागर की तरंगो से द्वारकापुरी अपूर्व शोभा सम्पन्न होने लगी। द्वारकावासी महालक्ष्मी को साक्षात रुक्मिणी के रूप में और द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी को चतुर्भुज महाविष्णु के रूप में देखकर परम आनन्दित हो उठे। महामोदः पुरोकसाम!
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