मानव का संसार से आसक्ति छोड़ ईश्वरार्पण जरूरी : पंडित महेश चंद्र
कथा के प्रारंभ में यज्ञाचार्य द्वय पंडित विनीत पांडेय व पंडित आशीष तिवारी के वैदिक मंत्रों के बीच यज्ञ के मुख्य यजमान प्रभुनाथ राम व श्यामप्यारी देवी ने ग्रंथ का पूजन अर्चन कर व्यासपीठ पर विराजमान कथा प्रवक्ता का माल्यार्पण कर स्वागत किया। कथा प्रारम्भ करते हुए आचार्यश्री ने बताया कि जड़भरत ऋषभ देवजी के पुत्र थे और बड़े तपस्वी थे। वे सदैव ईश्वर का स्मरण, भजन व सुमिरन करते रहते थे। एक दिन उन्होंने स्नान करते समय एक हिरणी को देखा जो गर्भवती थी। सिंह की दहाड़ से भयभीत होकर वह नदी में कूद गई। तैरते-तैरते थककर जल में ही बच्चे को जन्म दे दिया और मर गई। भरतजी को उस बच्चे पर दया आ गयी और उन्होंने उसको अपने आश्रम ले आया। हिरण के बच्चे की सेवा में लगे रहने के कारण भजन छूटने लगी। बराबर देखभाल करने से उस शावक के प्रति उनकी आसक्ति हो गई।
कथा प्रवक्ता ने कहा कि "अन्ते या मति सा गति।" जब अन्त समय आया और प्राण निकलने लगा तो उन्हें उस हिरण के बच्चे की चिंता लगी रही कि मेरे बाद इसकी देखभाल कौन करेगा? अंतिम समय में भी हिरण के प्रति आसक्ति के कारण उन्हें मृग बनना पड़ा। इसलिए इस कथा से हमे यह शिक्षा मिलती है हम प्रेम सबसे करें, अपना कर्तव्य भी पूरा करें लेकिन पूरी तरह से उसमें लिप्त न हों। आसक्ति और समर्पण तो केवल और केवल परमात्मा में होना चाहिए। मनुष्य को कमल की भांति कीचड़ रूपी संसार से खुराक तो लेना है परंतु ईश्वर रूपी सूरज से ही सम्बन्ध बनाये रखना है। जिसने यह खूबसूरत दुनियां बनाकर हमें उसमें भेजा है, उस परमसत्ता का स्मरण जरूरी है।
तीसरे दिन की कथा में मुख्य रूप से त्रिलोकी नाथ श्रीवास्तव, विनोद तिवारी, मनीषा कन्नौजिया, अनिरुद्ध यादव, प्रदीप कुमार, आशीष चौधरी, पन्ना देवी, संजय तिवारी, किशुन चौहान, देवेंद्र तिवारी आदि उपस्थित रहे। अंत में सबने समवेत स्वर में भागवत भगवान की आरती कर प्रसाद ग्रहण किया।
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