परमात्मा ने सगुण रूप में प्रगट होकर खाया कलेवा : स्वामी ज्ञानानंद

परमात्मा ने सगुण रूप में प्रगट होकर खाया कलेवा : स्वामी ज्ञानानंद

करहाँ (मऊ) : नन्दगोप व्रजवासियों ने जब सवा लाख मन का  छप्पन भोग लगाया तो  गोविन्द गिरिधारी का चतुर्भुज रूप गोवर्धनजी के मध्य शिखर से प्रकट होकर साक्षात कलेवा ग्रहण करने लगा। "सगुण रूप में प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूं।" के अपने इस सनातनी उद्घोष को परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोवर्धन धारण लीला में  प्रत्यक्ष कर दिया।

यह बातें श्रीमद आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थानम काशी के संस्थापक अध्यक्ष व भारत राष्ट्र के प्रख्यात शांकर सन्यासी परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वतीजी महाराज ने कहीं। वे जफरपुर में आयोजित सप्तदिवसीय श्रीमद्भागवत कथा व सह रुद्राम्बिका महायज्ञ के पांचवें दिन कथा श्रवण करा रहे थे।

कथा विस्तार के क्रम में स्वामीजी ने कहा कि सात वर्ष की आयु में सात क्रोश के गोवर्धनजी और सात दिन की गोवर्धन धारण लीला एक अलौकिक सप्ताह यज्ञ का सनातनी विधान है। कार्तिक शुक्ल तृतीया से अक्षय नवमी  सप्ताह पर्यन्त गोवर्धन गिरिधारी का परम पुण्यप्रद पूजनोत्सव काल होता है। इस अवसर पर जो भक्त श्रद्धालु गिरिराज गोवर्धन की यात्रा करते हैं, गिरिराजजी उसके सम्पूर्ण मनोरथ को तत्काल सिद्ध कर देते हैं।

स्वामी जी ने बताया कि श्रीराधा कृष्ण के परस्पर प्रीति अनुराग की पर्वताकृति ही मूर्तिमान होकर गोवर्धन रूप धारण कर लिया। गोवर्धनजी की शिलायें आज भी राधा माधव प्रीतिद्रव छोड़ती रहती हैं, जो श्रीकृष्ण कुण्ड और श्रीराधाकुण्ड के रूप में प्रतिष्ठित हैं। स्वामीजी ने बताया कि गिरिराजजी मुंहमांगा वरदान तो देते ही हैं और साधक को साक्षात भगवान के श्रीचरण और स्वरूप दोनों प्रदान कर देते हैं। श्रीभगवान के युगल चरणों से विभूषित शिला दी तो गोवर्धन में श्रीपीठ धाम बन गया। 350 वर्ष पूर्व  गिरिधारी का स्वरूप शिला प्रदान किया तो उदयपुर राजस्थान का श्रीनाथ धाम बन गया। लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण चन्द्रजी की लीला भूमि गोवर्धन आज भी सनातनी आस्था का गौरव गान कर रही है। 

स्वामीजी ने बताया कि जैसे काशी मणिकर्णिका की अग्नि ज्वाला कभी विश्राम नही करती, वैसे ही गोवर्धन परिक्रमा की भक्ति धारा रात-दिन अनवरत चलती रहती है, एक क्षण भी नही रुकती क्योंकि इस परिक्रमा या प्रदक्षिणा यज्ञ की प्रतिष्ठा स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने किया है। कहा कि सुजान साधक पहले विंध्याचल त्रिकोण की परिक्रमा पूजन करके पराम्बा का आशीर्वाद प्रसाद ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात गिरिराज गोवर्धनजी के परिक्रमा पूजन का मनोरथ सिद्ध सौभाग्य प्राप्त करते हैं। व्रज विन्ध्य के परिक्रमा का माहात्म्य वाणी से वर्णन नही किया जा सकता। प्रदक्षिणा करके ही जाना जा सकता है और सब कुछ पाया भी जा सकता है।

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