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नहीं सुनाई दे रही ‘होली खेले रघुबीरा अवध में’ की धुन

नहीं सुनाई दे रही ‘होली खेले रघुबीरा अवध में’ की धुन

◆अत्याधुनिक चकाचौंध में गुम हो गया ढोल मजीरा व फाग गीत

◆बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती थी होली की हुड़दंग

◆अब होली के दिन ही रंग खेलने की औपचारिकता निभाते हैं लोग

करहां (मऊ) : अत्याधुनिक चकाचौंध में हमारी पुरानी सांस्कृतिक परंपराओं का लोप होता जा रहा है। दो दशक पूर्व तक होली के एक माह पूर्व से शुरू हो जाने वाली हुड़दंग अब मात्र एक-दो दिन तक सिमट कर रह गई है। यही नहीं होली के दिन ढोल मजीरा व फाग गीत तो देखने को नहीं मिल रहा है। पहले होली खेले रघुवीरा की धुन पर थिरकने वाले लोग अब मात्र अबीर-गुलाल उड़ाकर  रस्म अदायगी पूरी करते हैं। ऐसे में हमारी परंपराओं को सहेजने की जरूरत है।

बदलते सामाजिक परिवेश और अति आधुनिक होते समाज ने हमारे महत्वपूर्ण पर्वो के महत्व को कमतर कर दिया है। पहले जैसे ही बसंत के मौसम का आगाज़ होता था। हवाएं रंग बदलने लगती थीं, फूलों में रंगत आने लगती थी, पौधें नए पत्ते धारण करने लगते थे, सरसों में पीले-फूल लगने लगते थे, युवा तन-मन एक नए उल्लास में उमड़ने-घुमड़ने लगता था; तो माना जाता था कि बस फागुन आ गया। फिर क्या शुरू हो जाता था ढोल-मजीरे का थाप और फगुवा-चैता की टोली। 'राधा संग श्याम खेलै होरी', 'होली खेलें रघुवीरा अवध में', 'रंगवा लाले लाल', 'खेलें मसाने में होली दिगम्बर', सहित 'फागुन में बुढ़वा देवर लागे' तक की गवनई यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनाई देने लगती थी।

पहले होली के पर्व पर लगभग सारे परदेशी अपने गांव देश खिंचे चले आते थे। 'खेलन होली हो खेलन होली, अईले-अइलें परदेशिया खेलन होली।' इसी तरह घर आकर लोग 'श्याम झूला झूलें श्याम झूला झूलें, राधा झुलावें झूलनवां' के रहस्यमय गीत को भी गाते और इसके मर्म को समझते थे। 'आई गईलें चईत महीनवां हे रामा, हमरे अंगनवां' जैसे चैता देर तक उतार-चढ़ाव के साथ झूमकर गाते थे। अब बदलते समय में होलिका दहन में पारंपरिक एवं प्राकृतिक दहन सामग्रियों की जगह टायर, पालीथिन, डीजल आदि केमिकल जलाए जाने लगे हैं। दूसरी तरफ साफ-सुथरे फाग-चैता जैसे गीतों की जगह कानफाड़ू फूहड़ अश्लील भोजपुरी संगीत ने जगह ले ली।


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